पंडित का आशीष – तेनाली राम की कहानी

tenali ram story- pandit ka ashish



महाराज कृष्णदेव राय धर्म में आस्था रखते थे और समय-समय पर तीर्यस्थलों का भ्रमण कर वहाँ के देवालयों में पूजा-अर्चना करते थे।

एक बार महाराज द्रविड राज्य के तीर्थस्थलों का भ्रमण करने गए। वहाँ एक देवालय में उन्हें एक तेजस्वी पुजारी के दर्शन हुए। वह पुजारी प्रकांड पंडित थे। समस्त शास्त्रों के ज्ञाता। महाराज उनसे बात कर बहुत सन्तुष्ट हुए। उनके मन के अनेक संशयों का निवारण भी इस बातचीत में हो गया। महाराज पुजारी के पास से संशय मुक्त होकर उठे और बहुत विनम्र भाव से पुजारी को कभी विजयनगर आने का न्योता दिया।

पुजारी राजा कृष्णदेव राय के व्यवहार से बहुत प्रसत्र हुए और महाराज को आश्वस्त किया कि जब कभी भी उचित अवसर आएगा, वह विजयनगर अवश्य आएँगे।

इस घटना के कुछ वर्ष बाद एक दिन महाराज अपने दरबार में बैठे थे। सभा की कार्रवाई चल रही थी। तभी महाराज के सामने द्वारपाल उपस्थित हुआ और बोला, “महाराज! द्रविड़ राज्य से एक त्रिपुंद्रधारी ब्राह्मण आया हुआ है और आपसे मिलने की अनुमति चाहता है।”

महाराज को अपनी द्रविड़ यात्रा का स्मरण हो आया। उन्हें स्मरण हो गया कि वहाँ एक पुजारी से उन्होंने विजयनगर आने का आग्रह किया था। स्मृति में यह बात कौंधते ही महाराज अपने सिंहासन से उठ खड़े हुए और अपने आसन के पास एक और आसन लगाए जाने का निर्देश देते हुए तत्पर हो गए। उन्होंने द्वारपाल को उस ब्राह्मण को आदरसहित राजदरबार में लाने का निर्देश दिया।

पुजारी जब राजसभा में आए तब सभी सभासदों ने अपने आसन से उठकर उनका स्वागत किया। महाराज ने पुजारी के चरण दृए और उन्हें अपने आसन के समीप रखे गए आसन पर बैठाया। महाराज के आग्रह पर पुजारी ने सभासदों को सफलता के सूत्र बताए। पुजारी की बातें सुनकर सभासद भी आह्लादित हुए। अपना उपदेश समाप्त कर पुजारी ने महाराज से कहा, “राजन्, अब मुझे चलना चाहिए। मैं देवालयों में देव दर्शन के लिए निकला है। मुझे स्मरण था कि मैंने आपको आश्वासन दिया था कि उचित अवसर पर मैं विजयनगर आउँगा। इसलिए आपके पास आया और अपना वचन पूरा किया।”

महाराज कृष्णदेव राय ने विनयपूर्वक त्रिपुंडधारी पुजारी को रोक लिया। महाराज ने पुजारी से कहा कि विजयनगर में भी अनेक प्रसिद्ध मन्दिर हैं, वहाँ भी पुजारी चाहें तो देव दर्शन कर सकते हैं।

महाराज के अनुरोध पर पुजारी एक सप्ताह तक विजयनगर में अतिथि के रूप में रहे। महाराज ने उनकी सेवा में अपना दो घोड़ोंवाला रथ और सारथी प्रस्तुत कर दिया था जिसके कारण पुजारी ने महाराज कृष्णदेव राय के राज्य के सभी मन्दिरों का दर्शन किया और अन्त में राजमहल के परिसर में वने मन्दिर में देव दर्शन के लिए पधारे।

मन्दिर का निर्माण बहुमूल्य श्वेत प्रस्तरों से कराया गया था किन्तु पुजारी ने उसमें वास्तुदोष देवा तथा अपने निर्देशन में उस वास्तुदोष को यथाशीघ्र दूर कराने का प्रस्ताव दिया। महाराज पहले से ही पुजारी से प्रभावित थे इसलिए जब मन्दिर का वास्तुदोष दूर कराने की बात उठी तब उन्होंने सहजता से उसे स्वीकार कर लिया।

अन्ततः वह दिन भी आ गया जब पुजारी जी को विदा होना था। बिदाई से पूर्व महाराज ने राजभवन में त्रिपुंद्रधारी पुजारी के अभिनन्दन का कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें तेनाली राम सहित सभी सभासदों को उपस्थित रहने का विशेष निर्देश महाराज ने दिया था।

त्रिपुंड्रधारी पुजारी के प्रति उपकृत भाव में महाराज ने सभासदों को सम्बोधित किया और अपने अभिनन्दन के बाद त्रिपुंड्रधारी पुजारी ने भी सभासदों को अपना कार्य एकाग्रचित्त और समर्पित भाव से करने का उपदेश दिया।

महाराज ने राजकोग से त्रिपुंद्रधारी पुजारी को पाँच सौ स्वर्णमुद्राएँ दक्षिणा के रूप में अर्पित की। इस आदर-अनुष्ठान के बाद विदा होते समय पुजारी ने बहुत प्रसघ्र होकर महाराज को आशीष विया, “महाराज, आपके पाँव में खुजली होती रहे और आपके सभासद लगातार चिन्तातुर रहें।”

पुजारी का यह आशीर्वाद सुनकर महाराज कृष्णदेव राय मानो आसमान से गिरे। सभी सभासद भौचक्के रह गए। पुजारी मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए राजभवन से बाहर जाने लगे। उन्हें स्वर्णमुद्राओं के नाथ इस तरह बाहर जाता देखकर एक सभासद उग्र हो उठा और राजभवन की मर्यादाओं का उल्लंघन करते हुए चीख उठा, “अबे ओ डोंगी। तू हमें और हमारे महाराज को अभिशप्त कर इस तरह नहीं जा सकता। उहर!”

उसकी कर्षश चीख से महाराज की तन्द्रा भंग हुई। वे यह नहीं समझ पाए थे कि इतनी आवभगत और भरपूर दक्षिणा के बाद भी त्रिएंड्रधारी पुजारी ने उन्हें शाप क्यों दिया? वे चेंकि उन पुजारी में आस्था रखते थे इसलिए उग्र नहीं हुए किन्तु वे उनके साथ अपने व्यवहार की मन-ही-मन मीमांसा करते रहे कि त्रिपं ड्रधारी ने उन्हें क्या कहा और क्यों कहा।

तभी त्रिपुंड्रधारी पुजारी ने मुस्कुराते हुए कोमल स्वरों में कहा, “महाराज, आपने पहली भेंट में बताया था। कि आपके दरबार में ज्ञानी और विभिन्न विधाओं में पारंगत सभासद हैं। इसलिए मैंने यह आशीर्वाद दिया है। संशय में न रहो और मुझे जाने दो।”

त्रिपुंड्रधारी पुजारी की राह रोकने के लिए उद्यत सभासद को तभी तेनाली राम ने कहा, “पुजारी जी के मार्ग में कोई अवरोध उत्पन्न न करो। उनके आशीष को समझो और उन्हें जाने दो!”

तेनाली राम के ऐसा कहने पर सभासद पुजारी की राह से हट गया और पुजारी राजभवन से विदा हो गए।

पुजारी जी की बात सुनकर महाराज खिन्न हो चुके थे इसलिए वे भी बिना कोई औपचारिकता निभाए राजभवन से बाहर चले गए। सभा विसर्जित हो गई।

राजभवन से सबके चले जाने के बाद तेनाली राम भी भारी कदमों से अपने घर की ओर चल पड़ा। आज त्रिपुंड्रधारी पुजारी के बचाव के लिए आगे आने के कारण सभी सभासदों की दृष्टि में उसने अपने लिए आक्रोश देखा था। महाराज ने भी राजभवन से जाते समय उसे उपेक्षा-भरी आँखों से देखा था।

तेनाली राम समझ चुका था कि पुजारी जी का बचाव करने के कारण सभी उस पर कुपित हैं। मन-ही-मन पूरे घटनाक्रम पर विचार करता हुआ तेनाली राम अपने घर पहुँचा और अनमने ढंग से हाथ-पाँव धोकर अपनी घरेलू दिनचर्या में लग गया। सुबह तक वह मानसिक रूप से राजभवन में अपने उपर सभासदों के सम्भावित

प्रहारों और महाराज के कोप-निवारण के लिए तैयार हो चुका था। आम दिनों की तरह ही तेनाली राम प्रफुल्लित भाव से अपने आसन पर बैठा। महाराज के आने पर सभा की कार्रवाई शुरू हुई। एक सभासद ने कल राजदरबार में त्रिपंड्रधारी पुजारी के आशीष की पंक्तियाँ सुनाते हुए कहा, “महाराज! मैं विनयपूर्वक आग्रह कर रहा है कि माननीय सभासद तेनाली राम कृपापूर्वक स्पष्ट करें कि इन शापभरी पंक्तियों को उन्होंने आशीष की संज्ञा देकर उस त्रिपुंड्रधारी होंगी का बचाव क्यों किया?”

महाराज ने भी तत्काल कहा, “हाँ, तेनाली राम! स्पष्ट करो कि पुजारी जी की बातों का तुमने क्या सार निकाला था कि सबको शाप लगनेवाली बातें तुम्हें आशीष लगीं!” महाराज गम्भीर थे। उन्होंने कहा, “वैसे वह पुजारी जी बहुत विज्ञपुरुष हैं-हो सकता है, उनकी बातों का कोई गूढार्थ हो!”

महाराज का आदेश मिलते ही तेनाली राम ने कहा, “महाराज! पुजारी जी की बातों का कोई गूढार्थ नहीं है। उन्होंने एक सभासद के विरोध पर यह कहा था कि आपने उनसे कहा था कि आपकी सभा में विज्ञ सभासद हैं। उन्होंने जाते-जाते सभासदों को यह बात सुनाकर उन्हें मानसिक रूप से सजग होने को कहा। पंडित जी ने अपने आशीर्वचन में यही तो कहा

था कि महाराज, आपके पाँव में खुजली होती रहे। इससे उनका तात्पर्य यह था कि आप लगातार घूम-घूमकर अपनी प्रजा का सुख-दुख जानते रहें। उनके आशीष के अन्तिम अंश का यह भाव है कि आपके सभासद लगातार चिन्तातुर रहें। इसका अर्थ भी साफ है।

जिस राज्य का राजा स्वयं प्रजा के सम्पर्क में रहेगा, इससे उसके राज्य में कहीं भी कोई कदाचार या अनाचार की घटना घटेगी तो उसका ज्ञान सीधे महाराज को होगा। इससे हर क्षेत्र के सभासद हमेशा डरे रहेंगे कि कहीं भी कोई गलत बात होगी तो उसका पता महाराज को हो जाएगा।

वे महाराज की सक्रियता के कारण डरे भी रहेंगे और चिन्तातुर भी। उन्हें हमेशा यह चिन्ता सताती रहेगी कि कैसे उनका कार्य निर्दोष हो। इस तरह चिन्तातुर सभासदों और सक्रिय महाराज के कारण विजयनगर की प्रगति होगी। यही उस पुजारी जी के आशीष का आशय है, महाराज!”

पुजारी जी के आशीष की यह व्याख्या सुनकर महाराज सन्तुष्ट हो गए। सभासदों ने तेनाली राम की मीमांसा का करतल ध्वनि से स्वागत किया और उस सभासद का मुह लटक गया जिसने महाराज का कृपाभाजन बनने के लिए पुजारी जी की राह रोकी थी।

तेनालीराम की कहानी PDF | Tenali Rama Story in Hindi PDF

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